काश कि, तुमने खुद को,
एक मीठी ग़ज़ल बनाया होता |
कुछ छूट रहे रिश्तों की,
परिभाषाओं को सजाया होता |
क्यूँ गढ़ती और लिखती रहीं ?
उत्पीडन, ओज- स्वर,
भ्रष्ट लोगो की निंदाओं की कहानी |
काश लिखा होता,
शास्वत प्रेम- काव्य,
तो मिली होती,
किसी के अतुल्य प्रेम की निशानी |
पर तुम तो भूल गई थी शायद ,
कि एक स्त्री थी तुम....
जिसकी कुछ मर्यादाएं होती है,
जिससे कुछ आशाएं होती है |
स्त्री जो सजती है, संवरती है,
नित पुरुष के बनाये सांचों में ढलती है |
शायद स्त्री,
पुरुषार्थ के अधीन,
घर-गृहस्ती सजाने का
सामान होती है |
और यदि यह मार्ग न चुन सके,
इच्छाओं का दमन न कर सके,
तो अग्नि परीक्षा का आयाम होती है |
स्त्री, जो शायद इसलिए,
कोमल होती है,
ताकि पुरूषों द्वारा मनचाहे ढंग से मोड़ी जाये |
और यदि मार खाकर,
कुछ कठोरता आ भी गयी हो..
तो फिर देह ही नहीं अंतर्मन तक तोड़ी जाये |
क्या समय रहते तुम्हें
समझ आने लगा था ?
कि स्त्री,
जब तक लता, वेल, वल्लरी रहती है,
अख़बारी समाज की कुटिल नज़र सहती है |
और इसीलिए तुम,
अपने भावों में करती रही,
समाज की हर व्यवस्था पर क्रोध |
लिखती रही,
पुरुष- प्रधान अनुसन्धान पर शोध |
शोध जो ऐसे,
सीता, अनुसुइया की पूरी कहानी पढ़ रहे थे |
और शायद
पुरुषार्थ की,
सच्ची परिभाषाएँ गढ़ रहे थे |
पर तुम तो भूल गई थी ..
कि एक स्त्री थी तुम.....
तुम्हें परिभाषाएं बदलने का,
अधिकार नहीं था |
तुम्हारा हर शोध;
क्या निरंतर
सरपंची-पौरुष पर वार नहीं था ?
तुम भूल गयी थी शायद,
कि एक स्त्री थी तुम...
क्या अब भी तुम्हारा भूगोल
बिगडना तय नहीं था ?
क्यूँ तुम्हें चीत्कार मचाती
ज्यामिति का भय नहीं था ?
तुम भूल गयी थी शायद,
कि एक स्त्री थी तुम........
सादर : अनन्त भारद्वाज