Friday, February 14, 2014

ना देखा झील की तरफ़ ना चाँद पर पड़ी नज़र

बहुत दिनों बाद आपकी खिदमत में एक गीत.... (ऐसे पढ़िए जैसे कोई पुरानी फिल्म का गाना हो )
Muntazir Firozabadi (Anant Bhardwaj)

ना देखा झील की तरफ़ ना चाँद पर पड़ी नज़र
रात भर नहाया चाँद और गिर पड़े कई शज़र
धुआँ धुआँ उठे जो बादल हम उन्हीं में खो गए
ना जाने कौन आ गया ना जाने किसके हो गए

ये वादियाँ चिनार की ये महफ़िलें बहार की
इन्हें न तुम कहो कुछ ये रौनकें हैं यार की
ना चाँदनी सी रात थी न उसमें कोई बात थी
हम हीं थके थके से थे कि आते ही.. सो गए
ना जाने कौन आ गया ना जाने किसके हो गए

खुद से ही हम पूछ बैठे अब जीके क्या करें
तमाम उमर तो गुज़र दी अब मरें या ना मरें
हैं किस तरह के ये सवाल... बेव.कू..फी. भरे
हँसते हँसते पलकों के किनारे पल में रो गए
ना जाने कौन आ गया ना जाने किसके हो गए

पैरों में पड़े सितारे शाल में वो जड़ गए
जो छूना चाहा उनको तो वो आप आप बढ़ गए
सुना है लोग कहते हैं वो आसमां से आए थे
बड़े अजीब लोग थे वो आके ज़ख्म धो गए
ना जाने कौन आ गया ना जाने किसके हो गए


Sunday, February 02, 2014

मुन्तज़िर फिरोज़ाबादी साहब की इक नज़्म : रात कैसे लड़े

रात कैसे लड़े

सवेरा रोज देता है नसीहतें
और तमाम भडकाऊ भाषण
रात के खिलाफ़
मगर ये रात की बेबसी है कि वो
करे भी तो क्या करे
उसके साथ हैं कौन ?
बस ये गए गुज़रे

रात होती है तो
तमाम फकीर आराम से सो लेते हैं
और
तमाम इश्कज़ादे मुंह ढक के रो लेते हैं
ये बात और है
उन्हें चाँद से मोहब्बत की
ये बीमारी दिन में लगी थी

रात होती है तो
किसी की कोई
तस्वीर किसी को संभाल लेती है
और
उस तरह की औरत
अपने पेट को पाल लेती है
ये बात और है
कि उसने सुन लिया था खुदखुशी से बेहतर है
जिंदगी से जंग जारी रखना

रात होती है तो
एक माँ अपने बच्चे को लोरी सुनाती है
और
एक अपने बच्चे को सितारे से बुलाती है
ये बात और है
कि उसे डर है उन पहरेदारों से
जो जीते हुए आदमियों को उठा लेते हैं

रात कैसे लड़े
अब इस सवेरे से
लड़ने वाले तो काम पर निकल गए

मुँह-अँधेरे से 

Thursday, September 12, 2013

एक ज़रा सी बात पे कल तुम बिगड़ गयीं

बहुत दिनों बाद एक गीत लिखा है, मस्ती भरा प्रेम का गीत...
मेरे अंदाज़ में सुनोगे.. तो वाकई मज़ा आ जायेगा :



एक ज़रा सी बात पे कल तुम बिगड़ गयीं
एक ज़रा सी बात पे आज मैं बिगड़ गया

चाहत तुम्हारी थी मुझे अपना बनाने की
मेरी भी थी ख्वाहिश तुम्हारे पास आने की
कितने हुए दिन यूँही हम मिल नहीं पाए
ऋतुएं भी चल दीं थी फूल खिल नहीं पाए
फिर तय किया दिन मिलने का मौसम बिगड़ गया
एक ज़रा सी बात पे कल तुम बिगड़ गयीं
एक ज़रा सी बात पे आज मैं बिगड़ गया

पढ़ने के उन दिनों हम प्यार में पड़े थे
दिल था हमारा साहित्य विज्ञान से भिड़े थे
उसके भी दिन थे पढ़ने के उसको पढ़ा दिया
मैं पास तो था बढ़िया बस टॉप न किया
फिर आकर पड़ोसियों ने कहा लड़का बिगड़ गया
एक ज़रा सी बात पे कल तुम बिगड़ गयीं
एक ज़रा सी बात पे आज मैं बिगड़ गया

वर्षों का ये प्रसंग था कुछ वर्ष ही रहा
अब तुम नहीं मिलोगे घरवालों ने ये कहा
हमने भी उनकी बात को दिल से नहीं लिया
किस्सा था जैसा चल रहा बस चलने ही दिया
पढाई करने पूरी थोड़ी बनाई दूरी सिस्टम बिगड़ गया
एक ज़रा सी बात पे कल तुम बिगड़ गयीं
एक ज़रा सी बात पे आज मैं बिगड़ गया

फिर सेट-साट होकर घर में ये राज खोला
हमको पसंद है लड़की फिर कोई कुछ न बोला
सुनके ये सब खुश थे लड़का और लड़की सैटल
शादी हुई हमारी विद ऑउट एनी बैटल
और जब हो ही गयी शादी तो अब क्या बिगड़ गया
एक ज़रा सी बात पे कल तुम बिगड़ गयीं
एक ज़रा सी बात पे आज मैं बिगड़ गया

Sunday, April 28, 2013

एक लेख पिता के नाम पर लिखी तमाम कविताओं पर


एक अनमोल रिश्ता : पिता के साथ

जोरावर जोर से बोला फतेह सिंह शेर-सा बोला
रखो ईंट, भरो गारा और चुनो दीवार हत्यारे
हमारी साँस बोलेगी निकलती लाश बोलेगी
देश की जय होगी पिता दसमेश की जय होगी

मुझे ये पंक्तियाँ जब से याद हैं, जब में कोई तीसरी कक्षा में पढ़ता था और ये पंक्तियाँ दो बहादुर बच्चों की तस्वीर के साथ हमारी क्लास की दीवार पर शोभायमान थीं | अगर पिता के द्वारा दिए गए संस्कार नैतिक और अमूल्य हों तो बच्चों का स्वर इस प्रकार हो जाना स्वाभाविक है | ये पंक्तियाँ पिता के संस्कारों का ही नहीं अपितु पिता द्वारा प्रदत्त स्नेह और कर्तव्य-निष्ठा का भी सन्देश देतीं हैं |

जब राजीव ‘माहिर’ जी ने मुझसे कहा कि आपको साहित्यार्थ पुस्तिका हेतु पिता को समर्पित एक लेख या कविता लिखनी है तो मैंने बीच का रास्ता चुन लिया- पिता की कविताओं पर छोटा सा लेख | वैसे तो पिता को कोई भी परिभाषित नहीं कर सकता क्यूंकि माता-पिता, गुरु कुछ ऐसे रिश्ते भगवान ने हमें दिए हैं जिनसे हम कितना भी ऋण-मुक्त होना चाहें, असंभव ही जान पड़ता है| एक सज्जन के लिए पिता शब्द का उच्चारण ही पलकों को झुका देता है, ताकि कुछ पलों के लिए वो अपने भगवान अपने खुदा को धन्यवाद कह सके | कहते हैं कि मां दुनिया की अनोखी और अद्भुत देन हैं। वह अपने बच्चे को नौ महीने तक अपनी कोख में पाल-पोस कर उसे जन्म देने का नायाब काम करती है। अपना दूध पिलाकर उस नींव को सींचती और संवारती है। जैसा कि मां का स्थान दुनिया सबसे महत्वपूर्ण स्थान है, वैसे ही पिता का स्थान भी बहुत महत्वपूर्ण होता है। हिन्दी कविता जिस आवृत्ति से माँ का गुणगान करती दिखती है, उतनी भारी संख्या में पिता पर नहीं बिछती। यदि काव्य-पल्लवन की कविताओं को भी जोड़ लिया जाय तो संग्रहालय में पिता से संबंधित मात्र कुछ कविताएँ हीं मिलतीं हैं | जब हिंदी कवि सम्मेलनों पर पिता की कविताओं की जरुरत थी तब पंडित ओम व्यास जी ने एक ऐसी कविता दी जो जन्मों तक याद की जायेगी | पेश हैं उनकी महान कविता के कुछ अंश -
पिता, पिता रोटी है, कपडा है, मकान है,
पिता, पिता छोटे से परिंदे का बडा आसमान है,

पिता, पिता अप्रदर्शित-अनंत प्यार है,
पिता है तो बच्चों को इंतज़ार है,

पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं,
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं,

पिता से परिवार में प्रतिपल राग है,
पिता से ही माँ की बिंदी और सुहाग है,

पिता, पिता सुरक्षा है, अगर सिर पर हाथ है,
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,

‘पिता’ शब्द के उच्चारण के साथ ही एक ऐसे शख्स की तस्वीर जेहन में उतर जाती है जो अपने बच्चों के साथ मेले में घूम रहा होता है, जिसका व्यक्तित्व थोडा कठोर सा है, जो मीलों दूर तक जाकर रोटी की जुगाड कर रहा होता है, जो अपने बच्चों को रात के आसमान में चंदा दिखा रहा होता है, कभी रौब से फटकार रहा होता है और कभी गलत काम करने पर मार भी रहा होता है | इसी बात को जितेन्द्र सोनी अपनी कविता ‘मेरे पिता- एक वट वृक्ष’ में इस तरह लिखते हैं -
मेरे पिता
नारियल की मानिंद
बाहर से कठोर
भीतर से मुलायम
बसते हैं
मेरे खून में
मेरी आँखों में
मेरे विचारों में
सच है 
मैं हर बार लड़ता हूँ
बनता हूँ, जूझता हूँ
अपने पिता की तरह वटवृक्ष बनने को 
जिसकी छत्रछाया में
साकार होते हैं
मेरे जैसे सपने !

पिता नाम का शख्स जवानी के दिनों में बच्चों का दोस्त भी बन जाता है तो कभी उसके लिए रोड़ा भी | तो कुल मिलाकर पिता की एक अच्छी-खासी तस्वीर सामने निकल कर आती है | एक बाप अपने बच्चों को साईकिल ही नहीं दिलवाता उस साईकिल को चलाना भी सिखाता है, भले ही उसे महीने साईकिल के पीछे भागना पड़े | इसी बात को उमाशंकर चौधरी ने अपनी रचना ‘बुजुर्ग पिता के झुके कंधे हमें दुःख देते हैं’ में बड़ी आसानी से लिख दिया –
हमारे घर से दो किलोमीटर दूर की हटिया में
जो दुर्गा मेला लगता था उसमें हमने
बंदर के खेल से लेकर मौत का कुआँ तक देखा था
पिता हमारे लिए भीड़ को चीरकर हमें एक ऊँचाई देते

पुत्र जाने-अनजाने में पिता से बहुत सी बातें सीखता है | वो कुम्हार का बर्तन बन सकता है कुम्हार नहीं | अज्ञेय अपनी एक रचना में कितनी बड़ी बात सहजता से कहते हैं-
आपने कभी
चाय पीते हुए
पिता के बारे में सोचा है?
हम कुछ दूसरे हो सकते थे।
पर सोच की कठिनाई है कि दिखा देता है
कि हम कुछ दूसरे हुए होते
तो पिता के अधिक निकट हुए होते
अधिक उन जैसे हुए होते।

पिता भी
सवेरे चाय पीते थे
क्या वह भी
पिता के बारे में सोचते थे --
निकट या दूर?

नील कमल जी अपनी कविता में लिखते हैं-
भूख के दिनों में
खाली कनस्तर के भीतर 
थोड़े से बचे, चावल की
महक का नाम, पिता है

हिंदी कवि मंचों के बड़े नाम डॉ. कुमार विश्वास भी अपनी रचना में पिता को कुछ ऐसे व्यक्त करते हैं –
फिर पुराने नीम के नीचे खडा हूँ
फिर पिता की याद आई है मुझे
नीम सी यादें ह्रदय में चुप समेटे
चारपाई डाल आँगन बीच लेटे
सोचते हैं हित सदा उनके घरों का
दूर है जो एक बेटी चार बेटे

एक रिश्ता और है जो कई मायनों में संस्कारों और मोह की चासनी में लिप्त हुआ है और वो रिश्ता है बाप-बेटी का | बेटियों के लिए पिता के क्या मायने हैं इस बात को मुन्नवर राना से अच्छा भला कोई कैसे कह सकता था ? उन्होंने एक ही शेर में सारी बात कह डाली –
रो रहे थे सब तो मैं भी फूटकर रोने लगा,
वैसे मुझको बेटियों की रुखसती अच्छी लगी
तो कहीं राना साहब का ये शेर एक पिता के दर्द को भी बयां करता है -
ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म मेला हो गया
उड़ गईं आंगन से चिड़ियां घर अकेला हो गया

दिवंगत पिता के प्रति सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी ने कई रचनायें लिखी हैं | सीधे, सरल-से पिता के लिए एक रचना उनकी मार्मिक मन:स्थिति का परिचय तो देती ही है साथ में समाज पर प्रहार भी करती है -
तुम्हारी अन्तिम यात्रा में वे नहीं आए
जो तुम्हारी सेवाओं की सीढ़ियाँ लगाकर
शहर की ऊँची इमारतों में बैठ गए थे,
जिन्होंने तुम्हारी सादगी के सिक्कों से
भरे बाजार भड़कीली दुकानें खोल रक्खी थीं;
जो तुम्हारे सदाचार को
अपने फर्म का इश्तहार बनाकर
डुगडुगी के साथ शहर में बाँट रहे थे।

एक समय ऐसा भी आया जब हिंदी कविता में से 'बाबूजी' के अक्स बिल्कुल ग़ायब ही हो गए | तो लीजिए आलोक श्रीवास्तव की ग़ज़लों में 'बाबूजी'से मिलिए-
घर की बुनियादें, दीवारें, बमोबर-से थे बाबूजी
सबको बांधे रखने वाला, ख़ास हुनर थे बाबूजी
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्मा जी की सारी सजधज, सब ज़ेवर थे बाबूजी
कभी बड़ा सा हाथ ख़र्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी

नन्द किशोर आचार्य जी भी अपनी रचना ‘पिता के जाने पर’ में एक पिता की कुछ आदतों को बयान करते हैं और अंत में उन्हें इस बात का डर भी रहता है कि कहीं उनका बेटा भी यह कविता न पढ़ ले –
बहुत जतन से रखे थे पिता ने
अन्दर वाले बक्से में
अपना दो घोड़ा बोस्की का कुर्ता
धोती सच्चा हीरा और दुपट्टा रेशमी
खास मौकों पर पहन सकने के लिए।

शुरू में कभी फुर्सत के दिन
दिखा भी देते थे उन्हें
धूप और हवा
फिर डर गये
कहीं हाथों पर जमे
कत्थे के धब्बे न लग जायें उन पर ।

उर्दू के महान शायर निदा फाज़ली ने अपनी एक रचना ‘वालिद की वफात पर’ में अपने वालिद को कुछ इस तरह याद किया-
तुम्हारी कब्र पर
मैं फातिहा पढने नहीं आया
मुझे मालूम था
तुम मर नहीं सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर जिसन उडाई थी
वो झूठा था

उमेश चौहान जी की कविता ‘पिताजी’ का एक भाग उस हिन्दुस्तानी पुरुष को दिखाता है जो अपने घर के सरे काम करता है और बच्चों की परवरिश भी | जैसे एक भाग में वो कहते हैं-
वैसे तो काम काज करना,
नियति में नहीं था पिताजी की,
हमारे लिए सपनों जैसे ही थे वे दिन
जब अम्मा की बीमारी के चलते
पिताजी ही सुलगाते थे चूल्हे की लकड़ियाँ
उबालते थे दाल और सेंकते थे रोटियाँ

कुंवर नारायण अपनी रचना “पिता से गले मिलते” में लिखते हैं –
पिता से गले मिलते 
आश्वस्त होता नचिकेता कि 
उनका संसार अभी जीवित है। 

उसे अच्छे लगते वे घर 
जिनमें एक आंगन हो 
वे दीवारें अच्छी लगतीं 
जिन पर गुदे हों 
किसी बच्चे की तुतलाते हस्ताक्षर

एक पुराने भजन की चार पंक्तियाँ याद आ जाती हैं
:
पिता ने हमको योग्य बनाया, कमा कमा कर अन्न खिलाया
पढ़ा लिखा गुणवान बनाया, जीवन पथ पर चलना सिखाया
जोड़ जोड़ अपनी सम्पत्ति का बना दिया हक़दार...
हम पर किया बड़ा उपकार....दंडवत बारम्बार...

आज कल के इस भौतिकवादी समाज में किसी भी रिश्ते के प्रति इतनी आत्मीयता नहीं कि व्यक्ति उसे अपनी आत्मा से स्वीकार सके | सब कुछ एक मजबूरी बनकर रह गया है और कभी तो इस मजबूरी का बांध टूट भी जाता है और पिता वृद्धावस्था में वृद्ध-आश्रम की शरण लेते हैं | न जाने क्यों हम इतने कठोर हो जाते हैं | कुछ समय पहले एक कवि सम्मलेन में मैंने एक बूढ़े पिता की व्यथा में अपनी ये पंक्तियां पढ़ी थी -
आज के भी दशरथ चार पुत्रों को पढाते हैं
फिर भी चार पुत्रों पर वो बोझ बन जाते हैं
कलयुग में राम कैसी मर्यादा निभाते हैं
राम घर मौज ले और दशरथ वन जाते हैं
ऐसे राम को दीपों की कतार कैसे दूँ
कविता को बुनने का आधार कैसे दूँ ?

आज दौर बदल चुका है, पिता बच्चों को बेवजह फटकारता नहीं, कठोर बनकर पेश नहीं आता, बच्चे की पढाई में उसके साथ भागता है मानो बच्चों का नहीं उनका इम्तेहान हो | अपने बच्चों को सफल बनाने में कोई चूक नहीं आने देता | बच्चों को भी चाहिए पिता की महत्ता को समझें, किसी फादर्स डे की अनिवार्यता को नहीं | आज हमारा समाज शिक्षित तो है थोडा संस्कारी और हो जाए तो बस आनंद आ जाए |
शेष फिर.............
आपका : अनन्त भारद्वाज 

Monday, February 11, 2013

गीत: मेरी यादों को वो थपकी, दे दे के सुलाती है


मेरी यादों को वो थपकी, दे दे के सुलाती है
पल भर मुझको याद करे, पल भर में भुलाती है,
मेरी यादों को वो थपकी, दे - दे के सुलाती है |

वो प्रेम का पहला था पन्ना जो घर तक जाता था,
फिर सकुचाते-शरमाते मेरी जेब से बाहर आता था,
उस पहले पन्ने को उसने खत का नाम दिया होगा,
फिर घूंट-घूंट करके उसने लब्जों का जाम पिया होगा,
वो जाम वहीँ पर थम जाता तो भी तो अच्छा था,
अब खत में खुद ही जलती है और उन्हें जलाती है |
मेरी यादों को वो थपकी, दे - दे के सुलाती है |

वो उसका शायद हिम्मत करके मुझसे मिलना था
अजी मिलना क्या था वो तो होठों का सिलना था
गर उस पर भी मैं शरमा जाता तो फिर क्या होता
अजी होना क्या, मैं बोला फिर जैसे कोई रट्टू तोता
तब याद है घंटों खूब हंसी थी वो उस रट्टू तोते पर
अब खुद भी कितना रोती है और मुझे रुलाती है |
मेरी यादों को वो थपकी, दे - दे के सुलाती है |

मुझको तो कुछ भी याद नहीं पर उसकी थी ड्यूटी
तारीखें छिपकर लिखती थी वो क्यूटी - सी ब्यूटी
जब कभी अकेली हो जाती, दरिया सा बहता था
इस दो हंसों वाले जोड़े को पास रखो कहता था
अब लाख दफा फटकार चुकी कि दूर रहो मुझसे
फिर क्यूँ पगली उन हंसों के जोड़ों को सजाती है ?
मेरी यादों को वो थपकी, दे - दे के सुलाती है |
  

गीत: वो मेरी सहेली है, कितनी अलबेली है


रातों-रातों में जाने क्यूँ, वो जगती रहती है
बातों-बातों में जाने क्यूँ, बच्चों सी लड़ती है   
सुलझी-सी दिखने वाली, उलझी-सी पहेली है
हाँ वो मेरी सहेली है, कितनी अलबेली है |

होठों को जब खोले, टॉफी सी घुलती है
कान्हा की मुरली है, मीरा सी दिखती है
पूजा में सजने वाली, मिसरी की डेली है
हाँ वो मेरी सहेली है, कितनी अलबेली है |

कभी दोस्त बनाये तो, ये जग भी छोटा है
कभी रूठ जाये तो फिर, हर कोई खोटा है
सबको अपना कहती, फिर भी अकेली है
हाँ वो मेरी सहेली है, कितनी अलबेली है |

सुन्दर-सा रूप है उसका, रब ने तराशा है
शरमा के इठलाना ही उसकी परिभाषा है
वो तो किसी राजा की सुन्दर सी हवेली है
हाँ वो मेरी सहेली है, कितनी अलबेली है |


Saturday, January 05, 2013

ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ

आज के परिवेश में जो युवा वर्ग अपने संस्कारों और संस्कृति के मूल्यों से पिछड़ रहा है उसमें कहीं न कहीं हमारी उस पीढ़ी का भी दोष है, जो युवाओं को नाकारा बताती है, उन्हें धूर्त समझती है | वो पीढ़ी भी तो वही चाहती है कि उसके बेटा/बेटी एक अच्छी सी नौकरी पाकर समाज में ठाठ-बाट से रहे | क्या जरुरत है भगत, सुभाष, आजाद या बिस्मिल बनने की ? भले ही आज़ाद भारत में आज़ादी बस नाम तक सीमित हो |
ऐसे ही विचार रहे तो शायद वो दिन दूर नहीं जब इतिहास खड़ा होकर रोए और हम सब पर मूक-दर्शक बने रहने के अलावा और कोई विकल्प ही न हो | तब दोनों पीढ़ियों के बीच खड़े होकर मैंने एक कविता लिखी है, आप लोगों का आशीष चाहूँगा - 

कुंठित मिला है मुझको, राही हरेक पथ पर |
अब तक जो लड़ रहा है, गाँधी-सुभाष हठ पर ||
बंदूकें खेत में जब, इक भगत बो रहा था |
कुनवा था खानदानी, जो पानी दे रहा था ||
उस वक्त हर पिता का, परिवेश मौन ना था |
घर-घर से एक बच्चे, का खून खौलना था ||
गुरु-दशम सजा रहे थे, भाल भारती का |
सिंह-पुत्र बढ़ा रहे थे, मान आरती का ||
आलस को त्याग दो तुम, मैं ओज चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ ||१||

पश्चिम से आ रहीं हैं, अवसाद की हवाएं |
वो राह ही भली थी, दीपक चलो जलाएं ||
ऐसे भरम में पड़कर, उनको लजा रहे हो |
चिताएं वीरों की, सचमुच जला रहे हो ||
इक था अटल हिमालय, वो भी हिल रहा है |
गंगा डरी हुई है, सम्मान डर रहा है ||
नारी को ढूँढने में, वानर लगा हुआ है |
तब भी लगा हुआ था, अब भी लगा हुआ है || 
लक्ष्मण रहो न मूर्छित, मैं होश चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ ||२||

भटकी हुई दिशाएं, भटका हुआ सवेरा |
चारों तरफ कुहासा, चारों तरफ अँधेरा ||
सूरज-औ-चाँद की अब, लाशें निकल रहीं हैं |
देश-प्रेम की तरंगे, असहाय जल रहीं हैं ?
इनको शिवाजी की, तलवार दिखानी है |
औ पदमिनी-जौहर की, याद दिलानी है ||
इतिहास सिखाता है, चाहें जब पढ़ लेना |
हाड़ा-रानी वाला पन्ना, जीवन में गढ़ लेना ||
श्रृंगार हो चुका अब, आक्रोश चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ ||३||

अमृत था जल यहाँ का, श्रृद्धा से पी रहे थे |
सत्कार था अतिथि का, भगवान कह रहे थे ||
पंक्षी थे सोने के हम, सिंहो से खेले थे हम |
जख्म छातियों पर, खुशियों से झेले थे हम ||
माँ भारती का दामन, हर कोई नोंचता है |
जयचंद धन बनाकर, गैरों को सौंपता है ||
चोरों के सीने में तुम, हर प्रहार कर दो |
मेहनत से अपने, जख्मों को आज भर दो ||
लक्ष्मी कुबेर सा अब, मैं कोष चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ ||४||

निष्ताप तेज रवि का, क्यूँ आज ढल चुका है ?
या आवरण में कोई, ग्रहण पल चुका है ?
यह नाश है मनुज का, मानवता रो पड़ी है |
क्या युगपुरुष की भी, छाती छली पड़ी है ?
घर में तुम्हारे तुमको, सेवक कोई बनाये |
रोटी न दे मेहनत की, बेटी से खेल जाए ||
बाहुबली के बल की, पहचान करानी हैं |
ये भूली-बिसरी बातें, बस याद दिलानी हैं ||
शोषित जगाओ खुद को, मैं रोष चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ ||५||

सादर : अनन्त भारद्वाज 
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