एक अनमोल रिश्ता : पिता के
साथ
जोरावर जोर से बोला फतेह सिंह शेर-सा बोला
रखो ईंट, भरो गारा और चुनो दीवार हत्यारे
हमारी साँस बोलेगी निकलती लाश बोलेगी
देश की जय होगी पिता दसमेश की जय होगी
मुझे ये पंक्तियाँ जब से याद हैं, जब में कोई
तीसरी कक्षा में पढ़ता था और ये पंक्तियाँ दो बहादुर बच्चों की तस्वीर के साथ हमारी
क्लास की दीवार पर शोभायमान थीं | अगर पिता के द्वारा दिए गए संस्कार नैतिक और
अमूल्य हों तो बच्चों का स्वर इस प्रकार हो जाना स्वाभाविक है | ये पंक्तियाँ पिता
के संस्कारों का ही नहीं अपितु पिता द्वारा प्रदत्त स्नेह और कर्तव्य-निष्ठा का भी
सन्देश देतीं हैं |
जब राजीव ‘माहिर’ जी ने मुझसे कहा कि आपको
साहित्यार्थ पुस्तिका हेतु पिता को समर्पित एक लेख या कविता लिखनी है तो मैंने बीच
का रास्ता चुन लिया- पिता की कविताओं पर छोटा सा लेख | वैसे तो पिता को कोई भी
परिभाषित नहीं कर सकता क्यूंकि माता-पिता, गुरु कुछ ऐसे रिश्ते भगवान ने हमें दिए
हैं जिनसे हम कितना भी ऋण-मुक्त होना चाहें, असंभव ही जान पड़ता है| एक सज्जन के
लिए पिता शब्द का उच्चारण ही पलकों को झुका देता है, ताकि कुछ पलों के लिए वो अपने
भगवान अपने खुदा को धन्यवाद कह सके | कहते हैं कि मां दुनिया की अनोखी और अद्भुत
देन हैं। वह अपने बच्चे को नौ महीने तक अपनी कोख में पाल-पोस कर उसे जन्म देने का
नायाब काम करती है। अपना दूध पिलाकर उस नींव को सींचती और संवारती है। जैसा कि मां
का स्थान दुनिया सबसे महत्वपूर्ण स्थान है, वैसे ही पिता का स्थान भी बहुत
महत्वपूर्ण होता है। हिन्दी कविता जिस आवृत्ति से माँ का गुणगान करती दिखती है, उतनी भारी संख्या
में पिता पर नहीं बिछती। यदि काव्य-पल्लवन की कविताओं को भी जोड़ लिया जाय तो
संग्रहालय में पिता से संबंधित मात्र कुछ कविताएँ हीं मिलतीं हैं | जब हिंदी कवि
सम्मेलनों पर पिता की कविताओं की जरुरत थी तब पंडित ओम व्यास जी ने एक ऐसी कविता
दी जो जन्मों तक याद की जायेगी | पेश हैं उनकी महान कविता के
कुछ अंश -
पिता, पिता रोटी है, कपडा है, मकान है,
पिता, पिता छोटे से परिंदे का बडा
आसमान है,
पिता, पिता अप्रदर्शित-अनंत प्यार
है,
पिता है तो बच्चों को इंतज़ार है,
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं,
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं,
पिता से परिवार में प्रतिपल राग है,
पिता से ही माँ की बिंदी और सुहाग है,
पिता, पिता सुरक्षा है, अगर सिर पर हाथ है,
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है,
‘पिता’ शब्द के उच्चारण के साथ ही एक ऐसे शख्स
की तस्वीर जेहन में उतर जाती है जो अपने बच्चों के साथ मेले में घूम रहा होता है,
जिसका व्यक्तित्व थोडा कठोर सा है, जो मीलों दूर तक जाकर रोटी की जुगाड कर रहा
होता है, जो अपने बच्चों को रात के आसमान में चंदा दिखा रहा होता है, कभी रौब से
फटकार रहा होता है और कभी गलत काम करने पर मार भी रहा होता है | इसी बात को
जितेन्द्र सोनी अपनी कविता ‘मेरे पिता- एक वट वृक्ष’ में इस तरह लिखते हैं -
मेरे पिता
नारियल की मानिंद
बाहर से कठोर
भीतर से मुलायम
बसते हैं
मेरे खून में
मेरी आँखों में
मेरे विचारों में
सच है
मैं हर बार लड़ता
हूँ
बनता हूँ, जूझता हूँ
अपने पिता की तरह
वटवृक्ष बनने को
जिसकी छत्रछाया
में
साकार होते हैं
मेरे जैसे सपने !
पिता नाम का शख्स जवानी के दिनों में बच्चों का
दोस्त भी बन जाता है तो कभी उसके लिए रोड़ा भी | तो कुल मिलाकर पिता की एक
अच्छी-खासी तस्वीर सामने निकल कर आती है | एक बाप अपने बच्चों को साईकिल ही नहीं
दिलवाता उस साईकिल को चलाना भी सिखाता है, भले ही उसे महीने साईकिल के पीछे भागना
पड़े | इसी बात को उमाशंकर चौधरी ने अपनी रचना ‘बुजुर्ग पिता के झुके कंधे हमें
दुःख देते हैं’ में बड़ी आसानी से लिख दिया –
हमारे घर से दो किलोमीटर दूर की हटिया में
जो दुर्गा मेला
लगता था उसमें हमने
बंदर के खेल से
लेकर मौत का कुआँ तक देखा था
पिता हमारे लिए
भीड़ को चीरकर हमें एक ऊँचाई देते
पुत्र जाने-अनजाने में पिता से बहुत सी बातें
सीखता है | वो कुम्हार का बर्तन बन सकता है कुम्हार नहीं | अज्ञेय अपनी एक रचना
में कितनी बड़ी बात सहजता से कहते हैं-
आपने कभी
चाय पीते हुए
पिता के बारे में सोचा है?
हम कुछ दूसरे हो सकते थे।
पर सोच की कठिनाई है कि दिखा देता है
कि हम कुछ दूसरे हुए होते
तो पिता के अधिक निकट हुए होते
अधिक उन जैसे हुए होते।
पिता भी
सवेरे चाय पीते थे
क्या वह भी
पिता के बारे में सोचते थे --
निकट या दूर?
नील कमल जी अपनी
कविता में लिखते हैं-
भूख के दिनों में
खाली कनस्तर के
भीतर
थोड़े से बचे, चावल की
महक का नाम, पिता है
हिंदी कवि मंचों के
बड़े नाम डॉ. कुमार विश्वास भी अपनी रचना में पिता को कुछ ऐसे व्यक्त करते हैं –
फिर पुराने नीम के नीचे खडा हूँ
फिर पिता की याद
आई है मुझे
नीम सी यादें
ह्रदय में चुप समेटे
चारपाई डाल आँगन
बीच लेटे
सोचते हैं हित सदा
उनके घरों का
दूर है जो एक बेटी
चार बेटे
एक रिश्ता और है जो कई मायनों में
संस्कारों और मोह की चासनी में लिप्त हुआ है और वो रिश्ता है बाप-बेटी का | बेटियों
के लिए पिता के क्या मायने हैं इस बात को मुन्नवर राना से अच्छा भला कोई कैसे कह
सकता था ? उन्होंने एक ही शेर में सारी बात कह डाली –
रो रहे थे सब तो मैं भी फूटकर रोने
लगा,
वैसे
मुझको बेटियों की रुखसती अच्छी लगी
तो
कहीं राना साहब का ये शेर एक पिता के दर्द को भी बयां करता है -
ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म
मेला हो गया
उड़
गईं आंगन से चिड़ियां घर अकेला हो गया
दिवंगत पिता के प्रति सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी
ने कई रचनायें लिखी हैं | सीधे, सरल-से पिता के लिए एक रचना उनकी मार्मिक
मन:स्थिति का परिचय तो देती ही है साथ में समाज पर प्रहार भी करती है -
तुम्हारी अन्तिम यात्रा में वे नहीं आए
जो तुम्हारी
सेवाओं की सीढ़ियाँ लगाकर
शहर की ऊँची
इमारतों में बैठ गए थे,
जिन्होंने
तुम्हारी सादगी के सिक्कों से
भरे बाजार भड़कीली
दुकानें खोल रक्खी थीं;
जो तुम्हारे
सदाचार को
अपने फर्म का
इश्तहार बनाकर
डुगडुगी के साथ
शहर में बाँट रहे थे।
एक समय ऐसा भी आया जब हिंदी कविता में से 'बाबूजी' के अक्स बिल्कुल
ग़ायब ही हो गए | तो लीजिए आलोक श्रीवास्तव की ग़ज़लों में 'बाबूजी'से मिलिए-
घर की बुनियादें, दीवारें, बमोबर-से थे बाबूजी
सबको बांधे रखने वाला, ख़ास हुनर थे बाबूजी
अब तो उस सूने
माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्मा जी की सारी
सजधज, सब ज़ेवर थे बाबूजी
कभी बड़ा सा हाथ
ख़र्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस,
आधा डर थे बाबूजी
नन्द किशोर आचार्य जी भी अपनी रचना ‘पिता के
जाने पर’ में एक पिता की कुछ आदतों को बयान करते हैं और अंत में उन्हें इस बात का
डर भी रहता है कि कहीं उनका बेटा भी यह कविता न पढ़ ले –
बहुत जतन से रखे थे पिता ने
अन्दर वाले बक्से
में
अपना दो घोड़ा
बोस्की का कुर्ता
धोती सच्चा हीरा
और दुपट्टा रेशमी
खास मौकों पर पहन
सकने के लिए।
शुरू में कभी
फुर्सत के दिन
दिखा भी देते थे
उन्हें
धूप और हवा
फिर डर गये
कहीं हाथों पर जमे
कत्थे के धब्बे न
लग जायें उन पर ।
उर्दू के महान शायर निदा
फाज़ली ने अपनी एक रचना ‘वालिद की वफात पर’ में अपने वालिद को कुछ इस तरह याद किया-
तुम्हारी कब्र
पर
मैं फातिहा पढने नहीं आया
मुझे मालूम था
तुम मर नहीं सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर जिसन उडाई थी
वो झूठा था
उमेश चौहान जी की
कविता ‘पिताजी’ का एक भाग उस हिन्दुस्तानी पुरुष को दिखाता है जो अपने घर के सरे काम
करता है और बच्चों की परवरिश भी | जैसे एक भाग में वो कहते हैं-
वैसे तो काम काज करना,
नियति में नहीं था पिताजी की,
हमारे लिए सपनों जैसे ही थे वे दिन
जब अम्मा की बीमारी के चलते
पिताजी ही सुलगाते थे चूल्हे की लकड़ियाँ
उबालते थे दाल और सेंकते थे रोटियाँ
कुंवर नारायण अपनी
रचना “पिता से गले मिलते” में लिखते हैं –
पिता से गले मिलते
आश्वस्त होता
नचिकेता कि
उनका संसार अभी
जीवित है।
उसे अच्छे लगते वे
घर
जिनमें एक आंगन हो
वे दीवारें अच्छी
लगतीं
जिन पर गुदे हों
किसी बच्चे की
तुतलाते हस्ताक्षर
एक पुराने भजन की चार पंक्तियाँ याद आ जाती हैं:
पिता ने हमको योग्य बनाया, कमा कमा कर अन्न खिलाया
पढ़ा लिखा गुणवान बनाया, जीवन पथ पर चलना सिखाया
जोड़ जोड़ अपनी सम्पत्ति का
बना दिया हक़दार...
हम पर किया बड़ा उपकार....दंडवत बारम्बार...
आज कल के इस
भौतिकवादी समाज में किसी भी रिश्ते के प्रति इतनी आत्मीयता नहीं कि व्यक्ति उसे
अपनी आत्मा से स्वीकार सके | सब कुछ एक मजबूरी बनकर रह गया है और कभी तो इस मजबूरी
का बांध टूट भी जाता है और पिता वृद्धावस्था में वृद्ध-आश्रम की शरण लेते हैं | न जाने क्यों हम इतने कठोर हो जाते हैं | कुछ समय पहले एक कवि सम्मलेन में मैंने एक बूढ़े पिता की व्यथा में अपनी ये
पंक्तियां पढ़ी थी -
आज के भी दशरथ चार पुत्रों को पढाते हैं
फिर भी चार पुत्रों पर वो बोझ बन जाते हैं
कलयुग में राम कैसी मर्यादा निभाते हैं
राम घर मौज ले और दशरथ वन जाते हैं
ऐसे राम को दीपों की कतार कैसे दूँ
कविता को बुनने का आधार कैसे दूँ ?
आज दौर बदल चुका है, पिता बच्चों को बेवजह
फटकारता नहीं, कठोर बनकर पेश नहीं आता, बच्चे की पढाई में उसके साथ भागता है मानो बच्चों
का नहीं उनका इम्तेहान हो | अपने बच्चों को सफल बनाने में कोई चूक नहीं आने देता |
बच्चों को भी चाहिए पिता की महत्ता को समझें, किसी फादर्स डे की अनिवार्यता को
नहीं | आज हमारा समाज शिक्षित तो है थोडा संस्कारी और हो जाए तो बस आनंद आ जाए |
शेष फिर.............
आपका : अनन्त भारद्वाज