कल मैं अखबार के,
कोई चौथे पन्ने एक लेख पढ़ रहा था,
कुछ शेष था, कि
एक गहरे मंथन में ढूब गया था |
दिल्ली में हर रोज,
कुछ कलियाँ ,
कुछ आवारा भँवरों का शिकार हो रही हैं,
सह पायीं वेदना तो सह गयीं,
अन्यथा,
खुली आँखों से, खुले बदन,
खुली सड़कों पर सो रही हैं |
फिर सोचा,
क्या इतना ‘खुलापन’ ठीक है ?
या फिर ये भी पश्चिम से आई,
सभ्यता की सीख है |
कुछ तो है,
सच में हाँ, कुछ तो है,
ये “”स्लटवाक”” यूँ ही तो नहीं हो रहीं ,
या फिर,
खुली आँखों से, खुली सड़कों पे,
खुले बदन,
ये कलियाँ यूँ ही तो नहीं सो रहीं |
खैर छोडो,
कारन कोई भी हों,
साल, काल कोई भी हों,
जिम्मेदार है आवारा भँवरे ,
आज नहीं,
सदा से |
शायद फूलों के निर्माता ने ही उन्हें बनाया था,
प्रकृति में हों सकें और जन्म,
क्या मात्र इसीलिए,
फूलों को सजाया था ?
पर आवारा कैसे हों गए ये?
विषय है शोध का,
कोई अवतार क्यूँ नहीं लेता,
समय है क्रोध का |
आवारा तो रावन भी न था,
आवारा तो रावन भी न था,
जैसा मैंने “रामायण” में पढ़ा है ,
क्यूँ शेर के दांत गिनने वाला,
दु:शासन बना खड़ा है ?
छोटा नहीं,
बड़ा दु:शासन |
जो किसी दुर्योधन के अधीन,
नहीं रहता है,
बस रोज नई द्रोपदियों का,
मान मर्दन करता है,
बस कुछ क्षणिक,
दैहिक सुख के लिए,
फिर चाहे वो जन्मित कली हों या ,
परागहीन पुष्प |
आखिर कब तक?
कब तक,
ऐसे आवारा भँवरे ??
कब तक ???
दमन तो “संस्कारी” रावण का भी हुआ था न,
और होता है आज तक,
हर पर्व पर,
आवारा भँवरों को जलाने का भी,
पर्व बनाओ,
हर साल न सही,
एक बार तो...
क्यूँ कि,
पुष्प नहीं खिलते हैं,
बंद कमरों में...
3 comments:
sajagta....atyant sahajta aur samvedansheelta...ke saath...utni hi marmik aur sunder panktiyon ke dwaara...bahut sunder aur satya...
ati uttam rachanha anant ji
ati uttam rachanha anant ji
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