Tuesday, October 09, 2012

चलो आज लौटा ही दो वो पन्ने ( 52 पंक्तियाँ )


अभी कुछ दिनों पहले आप सभी के साथ कुछ पंक्तियाँ साझा की थीं | उन्ही पलों, पंक्तियों से मिलता-जुलता लिखा है, अभी-अभी (मूड बन गया था ना, 'एवेहीं' )
"मेरा प्यार लुटेरा था" श्रृंखला में दूसरी कड़ी --------------------------->

कविता : चलो आज लौटा ही दो वो पन्ने ( 52 पंक्तियाँ )


न तो तुम्हारा प्रेम मिला, न तुम,
न तो जमाना रूठा था, न हम |
और तुम्हें भी तो मात्र ‘प्रेम’ शब्द से लगाव था,
फिर क्यूँ मध्य में ये कुंठित-सा अलगाव था ?
तुम्ही तो हमेशा,
अपने हाथों की मेहदी में सजा देतीं थीं,
दो पागल बादलों को मिला देतीं थी |
मुझे क्या पता था कि बस लिखती थीं,
पता नहीं किस अग्नि में जलती थीं |
अच्छा !!!! मात्र लिखती थीं,
जीती कुछ और ही थीं |
तुम न मिल सकीं, न मिलोगी कभी,
जानता हूँ भलीं-भांति |


चलो आज लौटा ही दो वो पन्ने |
जवाब नहीं आया......
क्या ! क्या कहा ?
अब नहीं रहे वो ! जला दिए !
इतनी निष्ठुर तो नहीं थीं तुम,
जान गया था १ ही वर्ष में |
ऐसी होती तो बुरा न मान जातीं,
उस पहली मुलाकात वाले दिन ही |
अच्छा सच-सच बताना,
क्या सचमुच झेल रहीं थी अब तक मुझे |
या इन्तज़ार में थी मेरी किसी गलती के,
कि मैं गलती करूँ और कहो-
अब नहीं सुधारा जाता, छोड़ दूंगी तुम्हें |


चलो आज लौटा ही दो वो पन्ने |
सौ, दो-सौ खत भेजे थे तुम्हें मनाने,
सब वापस लौट आए,
पता नहीं तुमसे मिलके भी आए हैं या नहीं |
शायद नहीं आयें होंगे,
नक्कारे हैं ना मेरी तरह, मेरे खत |
काश मिल आते तुमसे तो,
१ तो अपने साथ लेकर ही आते |
यकीं है इतना तो,
वो बात अलग है कि खत खाली होता |
आज भी सोचता हूँ तो गुस्सा आता है,
क्या खाली खत भी नहीं लिखा जाता था तुमसे ?
खैर अब इंतज़ार क्या खाली खत का |


चलो आज लौटा ही दो वो पन्ने |
अच्छा अच्छा, सुन लिया, गुस्सा हो,
कभी नहीं मानोगी, ऐसा ही ना |
कभी कभी सोचता था कि,
राख ठंडी होने के बाद,
फिर से कोशिश करूँगा तुम्हें मनाने की |
पर हाय-री ये किस्मत ?
तुम इसे भी भांप गईं |
सच में प्यार बहुत करतीं थीं न मुझसे,
मैं कब, कैसे, कहाँ, मनाऊंगा तुम्हें ?
पूर्ण आभास था उन नफरत के दिनों में भी | 
पर जानना चाहूँगा अंतिम दिन तक, 
कहाँ गयीं वो तुम्हारी, प्रेम कवितायेँ ?

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