Tuesday, November 29, 2011

“ मैंने ये भी न पूछा.. ”

वफ़ा की परछाइयों   से ,
वो  आंधियां  आज भी चल रही थी ..
मैंने  ये  भी    पूछा  चिरागों  से ,
आज  तलक  कैसे  जल  रहे  हो ...

एक अरसे  से  नींद  की,
गोलियां  भी  असर  नहीं  दिखा  रही  थी ...
मैंने  ये  भी    पूछा  ख्वाबों   से ,
खुली  आँखों  में  कैसे  पल  रहे  हो ...

जिस्म  की  ये  मिटटी  ,
आंसुओं  में  भी  पत्थर  हो  रही  थी ..
मैंने  ये  भी   पूछा  खुद  से ,
वो  तो  नहीं  था तेरा  फिर  क्यूँ  हाथ  मल  रहे  हो ...

आज  मेरे  ज़ज्बातों  की ,
उमर  पूरी  हो  रही  थी  ...
मैंने  ये  भी    पूछा  सांसों   से ,
बिना  पैरों  के  कैसे  चल  रहे  हो ...

सादर: अनन्त भारद्वाज

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