ऐसे ही विचार रहे तो शायद वो दिन दूर नहीं जब इतिहास खड़ा होकर रोए और हम सब पर मूक-दर्शक बने रहने के अलावा और कोई विकल्प ही न हो | तब दोनों पीढ़ियों के बीच खड़े होकर मैंने एक कविता लिखी है, आप लोगों का आशीष चाहूँगा -
बंदूकें खेत में जब,
इक भगत बो रहा था |
कुनवा था खानदानी, जो पानी दे रहा था ||
उस वक्त हर पिता का, परिवेश मौन ना था |
घर-घर से एक बच्चे, का खून खौलना था ||
गुरु-दशम सजा रहे थे, भाल भारती का |
सिंह-पुत्र बढ़ा रहे थे, मान आरती का ||
कुनवा था खानदानी, जो पानी दे रहा था ||
उस वक्त हर पिता का, परिवेश मौन ना था |
घर-घर से एक बच्चे, का खून खौलना था ||
गुरु-दशम सजा रहे थे, भाल भारती का |
सिंह-पुत्र बढ़ा रहे थे, मान आरती का ||
आलस को त्याग दो
तुम, मैं ओज चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में,
वही जोश चाहता हूँ ||१||

वो राह ही भली थी, दीपक चलो जलाएं ||
ऐसे भरम में पड़कर, उनको लजा रहे हो |
चिताएं वीरों की, सचमुच जला रहे हो ||
इक था अटल हिमालय,
वो भी हिल रहा है |
गंगा डरी हुई है,
सम्मान डर रहा है ||
नारी को ढूँढने में,
वानर लगा हुआ है |
तब भी लगा हुआ था, अब भी लगा हुआ है ||
तब भी लगा हुआ था, अब भी लगा हुआ है ||
लक्ष्मण रहो न
मूर्छित, मैं होश चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ ||२||
ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ ||२||
सूरज-औ-चाँद की अब,
लाशें निकल रहीं हैं |
देश-प्रेम की तरंगे, असहाय जल रहीं हैं ?
देश-प्रेम की तरंगे, असहाय जल रहीं हैं ?
इनको शिवाजी की,
तलवार दिखानी है |
औ पदमिनी-जौहर की,
याद दिलानी है ||
इतिहास सिखाता है,
चाहें जब पढ़ लेना |
हाड़ा-रानी वाला पन्ना, जीवन में गढ़ लेना ||
हाड़ा-रानी वाला पन्ना, जीवन में गढ़ लेना ||
श्रृंगार हो चुका अब,
आक्रोश चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में,
वही जोश चाहता हूँ ||३||
अमृत था जल यहाँ का,
श्रृद्धा से पी रहे थे |
सत्कार था अतिथि का,
भगवान कह रहे थे ||

जख्म छातियों पर, खुशियों से झेले थे हम ||
माँ भारती का दामन, हर कोई नोंचता है |
जयचंद धन बनाकर,
गैरों को सौंपता है ||
चोरों के सीने में तुम,
हर प्रहार कर दो |
मेहनत से अपने,
जख्मों को आज भर दो ||
लक्ष्मी कुबेर सा अब,
मैं कोष चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में,
वही जोश चाहता हूँ ||४||
निष्ताप तेज रवि का, क्यूँ आज ढल चुका है ?
या आवरण में कोई, ग्रहण पल चुका है ?
या आवरण में कोई, ग्रहण पल चुका है ?
यह नाश है मनुज का,
मानवता रो पड़ी है |
क्या युगपुरुष की भी, छाती छली पड़ी है ?
क्या युगपुरुष की भी, छाती छली पड़ी है ?
घर में तुम्हारे
तुमको, सेवक कोई बनाये |
रोटी न दे मेहनत की, बेटी से खेल जाए ||
रोटी न दे मेहनत की, बेटी से खेल जाए ||
बाहुबली के बल की,
पहचान करानी हैं |
ये भूली-बिसरी बातें, बस याद दिलानी हैं ||
शोषित जगाओ खुद को, मैं रोष चाहता हूँ |
ये भूली-बिसरी बातें, बस याद दिलानी हैं ||
शोषित जगाओ खुद को, मैं रोष चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में,
वही जोश चाहता हूँ ||५||
सादर : अनन्त भारद्वाज
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