कई बार,
तुमने देखे होंगे,
त्यौहार के दिनों में,
अपनी लक्ष्मी का स्वागत करते
खुद से थोड़ी दूर बनी रंगोली में रंग भरते,
सैंकडों स्वागत द्वार..
और,
अक्सर
कई बार तो ,
राह चलते मिली होगी,
बरसात से पहले ,
पानी की व्याकुलता में जी रही ,
अपने फटे जख्मों को सीं रही ,
वो अभागिन धरती ,
पतझर का मौसम भी,
क्या याद है तुम्हें,
और वो अचानक से,
घर की बालकनी में,
छोटा सा पंक्षी,
जो गाता था गीत वियोग के,
इतनी तंगी में भी लाता था आंसू शोक के,
और हाँ,
वो सीमाहीन,
अनगिनत नदियों का,
अथाह जल लिए,
विशाल समुन्दर ,
आखिर वीरान रातों में,
अपने जल पर कितना दंभ भरता होगा ?
खुद की वीरानी खुद ही तो सुनता होगा..
ठीक वैसे ही,
मैं भी,
तुम्हारी प्रतीक्षा में,
अनगिनत द्वारों सा खड़ा रहता हूँ.
फूटती धरती सा पड़ा रहता हूँ.
पतझर में भी, पंक्षी सा गा लेता हूँ,
खुद की कहानी खुद को सुना लेता हूँ.
सादर: अनन्त भारद्वाज
1 comment:
अति सुन्दर
गूढ़ अर्थ समेटे हुई रचना
Post a Comment