जब तुम ये जानती थी,, ..
कुछ समस्याओं का निवारण था
मात्र यही एक कारन था.....
रात भर दिया जलता रहा..
खुद-ब -खुद बुझने के प्रयास करता रहा..
और ये भी तो .. कि,,,
किताब सिरहाने रखी रही..
चुप्पी साधे पड़ी रही,..
एक पन्ना भी नहीं पढ़ा मैंने ,
एक गीत भी नहीं गढ़ा मैंने.,
ये तो अब भी जानती हो,
रात भर नहीं झपकी थी पलक...
नितांत आकाश में देखता रहा फलक
रात के हर पल, हर पहर,
पढ़ी थी चादर बिस्तर पर,
खुद अपनी कहानी कह रही थी
चुपचाप हर करवट सह रही थी....
जब जानती थी सारे हाल,
क्यूँ करती थी प्रतिपल सवाल..
जब जानती थी सब तो क्यूँ कहा?
तुम भूल गए हो परिभाषाएं प्रेम की..
सादर : अनन्त भारद्वाज
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