Tuesday, November 29, 2011

वफ़ा की परछाई....



वफ़ा वो  कर  नहीं  पायी ,
बेवफा  मैं  उसे  कह  नहीं  पाया ..
वफ़ा  और  बेवफा  के  बीच  की  तकदीर  बचती  है ,
जिसे  मैं  वफ़ा  की परछाई  कहता  हूँ ..



आँगन  की  तुलसी  उलटी  गिनती  गिनती  है ,
और  कमरे  का  हर  कोना  खामोश  बैठा  है ..
मेरी   बेबसी  से  दरों - दिवार  रोती  है ,
जिसे  मैं  घर  की  तन्हाई  कहता  हूँ ...
  

एक  इशारे  पर  कीमती  सामान  आता  है ,
और  लाख  जिद्द  पर  भी  जरुरत  पूरी  नहीं  होती ..
इस   अमीरी  और  गरीबी  का  एक  हल  निकला  है,
जिसे  मैं  बाज़ार  की  महगाई  कहता  हूँ ...

 

पंजाब  और  लाहोरे  की  यहाँ  कितनी  बातें  है ,
और  कुछ   औकात  वाले  इन  बातों पे  लड़ते  है ...
फिर  भी  यहाँ  की  मिटटी  में  हर  रंग  शामिल  है ,
जिसे  मैं  मुल्क  की  अच्छाई  कहता  हूँ .....

सादर: अनन्त भारद्वाज

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