मैंने उनमें भी एक इंतज़ार, एक सोच, एक जीने का आयाम देखा तो ३ बंध जोड़े हैं, जो आगामी प्रकाशित काव्य-संग्रह 'प्रतीक्षा' में एक नया पन्ना जोडेंगे | प्रस्तुत है कविता 'हर पल में सदियाँ हैं' -
जीवन नदी के तट पर बैठा,
तीन बरस से अविलंबित-सा |
तट होता दूर चला जाता है,
ज्यों-ज्यों रस है प्रेम का भरता |
संयम की नौका मैं लेकर,
तुझको तट तक पहुँचाता हूँ |
पर तट से बढती दूरी देख,
स्वयं टूट-टूट रह जाता हूँ |
‘नदी’ हो तुम यूँ एक ‘प्रतीक्षा’,
या फिर उसमें भी नदियाँ हैं ?
प्रतिपल तेरे लिए है कटता,
या फिर हर पल में सदियाँ हैं ?
कितने ही काल-खण्ड है ढोती,
ना तो थकती, ना हीं है सोती |
तुझे देख मैं तुझसे मिलता,
तू खुद से ही अनभिज्ञ रही |
शायद आने वाले मधुर मिलन का,
तुझको अनुमान रहा होगा |
इसी बहाने समय बिताने का,
ये नाटक खूब रचा होगा |
‘घड़ी’ हो तुम यूँ एक ‘प्रतीक्षा’,
या फिर उसमें भी घड़ियाँ हैं ?
प्रतिपल तेरे लिए है कटता,
या फिर हर पल में सदियाँ हैं ?
उस कुल-दीपक का स्वागत,
करती थी दीपों की ज्वाला |
अब न मिले ढूँढे से दीपक,
और न वह दीपों की माला |
विकसित भी जब राष्ट्र हुआ,
मालाएँ बनतीं हैं लड़ियाँ |
गुणधर्म अभी भी शेष रहा,
तकतीं हैं पुरुषोत्तम को लड़ियाँ |
‘लड़ी’ हो तुम यूँ एक ‘प्रतीक्षा’,
या फिर उसमें भी लड़ियाँ हैं ?
प्रतिपल तेरे लिए है कटता,
या फिर हर पल में सदियाँ हैं ?
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